देसी राजनीति पर विदेशी असर— पढ़िए जिओ पॉलिटिक्स
देसी राजनीति पर विदेशी असर— पढ़िए जिओ पॉलिटिक्स
अगर आप समझते हैं कि मोदी सरकार अपनी योग्यता और प्रतिभा से सत्ता में आई है और चाय वाले के प्रधानमंत्री बनने के पीछे उसी संविधान की विशेषता है जिसे बदलने और नजरअंदाज करने का काम नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में कई साल से चल रहा है तो निश्चित रूप से आपको इस गड़बड़झाले को समझने की इच्छा होगी। हिन्दी में यह काम कर सकने वाली शायद पहली पुस्तक बाजार में आई है। सबूतों के साथ पत्रकार नवनीत चतुर्वेदी ने काफी परिश्रम और अनुसंधान के बाद एक किताब लिखी है जिओ पॉलिटिक्स। फेसबुक पर इसकी चर्चा से मैं समझ रहा था कि यह रिलायंस वाला जियो है और नरेन्द्र मोदी की राजनीति में रिलायंस या अंबानी की भूमिका की चर्चा होगी। बाद में पता चला कि मामला बहुत आगे तक जाता है और इसीलिए यह जिओ पॉलिटिक्स है।
बेशक दुनिया की राजनीति की चर्चा एक छोटी सी किताब में नहीं हो सकती है, तो आपको बताऊं कि यह पुस्तक का पहला हिस्सा है। आप समझ सकते हैं कि इसमें कैसे और कितने खुलासे होंगे। भारतीय राजनीति में विदेशी दिलचस्पी कोई नया मामला नहीं है। मोरारजी देसाई पर सीआइए का एजेंट होने का आरोप लगा था। देश की 115 हस्तियों को पैसे पहुंचाने वाला हवाला घोटाला भी विदेशी ताकतों से जुड़ा था और सुप्रीम कोर्ट में केस करने के बाद चार्ज शीट हुई लेकिन कायदे से तहकीकात नहीं हुई। ऐसे कई उदाहरण हैं जिनसे भारत के मामले में विदेशी दिलचस्पी का पता चलता है पर मामले की जांच नहीं हो रही है। वर्षों से। खुलासा तो बहुत दूर की बात है।
हो भी कैसे? विदेशी ताकतें किसी विदेशी नागरिक को प्रधानमंत्री तो बना नहीं सकतीं। और सोनिया गांधी चुनाव जीत गईं, प्रधानमंत्री बनने ही वाली थीं तो ऐसा ड्रामा किया गया जैसे चुनाव जीतने का कोई मतलब ही नहीं है, भारत में पैदा होना ज्यादा जरूरी है। और, अब देखिए भारत में पैदा हुए, पीढ़ियों से रह रहे लोगों को पाकिस्तानी कह दिया जाता है। उन्हें भी जिनके पूर्वज स्वेच्छा से पाकिस्तान छोड़कर आए थे। मुसलमान होने के बावजूद। पर वह अलग मुद्दा है। मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूं कि विदेशी एजेंसियां अगर अपने मन लायक सरकार चाहेंगी तो सबसे आसान है उसे पैसे से सहायता करना और इसीलिए नरेन्द्र मोदी ने जब विदेशी धन, काला धन और भ्रष्टाचार आदि की बात की तो उसका असर हुआ और वे प्रचार तथा प्रचारकों की सहायता से प्रधानमंत्री बन गए।
बनने के बाद उन्होंने वह सब किया होता जो कहा था, तो कोई दिक्कत ही नहीं थी। पर वे बिल्कुल अलग रास्ते पर जाते दिख रहे हैं। उनकी प्राथमिकताएं पूरी तरह बदल गई हैं। बात-बात पर आम आदमी को देशद्रोही कह दिया जाता है पर संविधान के खिलाफ बोलने और काम करने वाले पर किसी की नजर नहीं है। ऐसा क्यों है? इसमें विदेशी दिलचस्पी तो नहीं है? इसे समझना चाहें तो आप इस पुस्तक को पढ़िए और इसकी अगली किश्तों का इंतजार कीजिए। भारत की सरकार भारत का और भारत के नागरिकों का ही भला करे इसके लिए जरूरी है कि नागरिक जागरूक हों। हर किसी का जागरूक होना समान रूप से जरूरी है। पुस्तक पढ़िए, पढ़ाइए कुछ समझ में न आए तो लेखक से संपर्क कीजिए। लेखक सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं, किताब में उनका व्हाट्सऐप्प नंबर है और वे लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं इसीलिए सारे खेल जानते हैं।
पुस्तक परिचय में लेखक बताते हैं, अक्सर हमारी चुनी हुई सरकार किसी न किसी विदेशी दबाव में उनके हितों को ज्यादा प्राथमिकता देती है। एक लिमिट तक बैलेंस बनाते हुए यह सब विदेशी दबाव हमारे देश में हर केंद्र सरकार ने अब तक सहे हैं और यह सब छिपा हुआ नहीं है। लेकिन हमारे लोकतंत्र में यह पहली बार हुआ है कि जब 2014 में पूर्ण बहुमत से आई मोदी सरकार की नींव इस जिओ पॉलिटिक्स और विदेशी खुफिया एजेंसीज की मदद से रखी गई। और इसके लिए 1990 के दशक से एक सुनियोजित किस्म की मेहनत चल रही थी। इस किताब में बताया गया है कि कैसे घटनाक्रम हुए, ब्रांड मोदी कैसे बनाया गया और विदेशी खुफिया एजेंसीज का क्या रोल रहा।
कहने की जरूरत नहीं है कि जब कोई चुनी हुई सरकार विदेशी एजेंसीज के हाथ का खिलौना बन जाए तो देश की संप्रुभता एकता और अखंडता खतरे में आ जाती है क्योंकि हमारी सरकार उन देशों के व्यावसायिक, सामरिक, राजनीतिक हितों की रक्षा को प्राथमिकता देने लगती है। पुस्तक पढ़िए और इसके उदाहरणों पर विचार कीजिए। अगर आपको लगता है कि ब्रांड मोदी जैसा बताया गया, वैसा नहीं है तो इसे समझने की जरूरत है। ऐसा क्यों हुआ, किसने किया, किसलिए किया। क्या मकसद मोदी या भाजपा को सत्ता में लाना भर था या उससे आगे भी कुछ है। इस पुस्तक की जरूरत को इस उदाहरण से समझिए कि हमारे देश में प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं होता है। सासंदों का चुनाव होता है और सबसे बड़े दल के सांसद अपना नेता चुनते हैं और वही प्रधानमंत्री बनता है।
नरेन्द्र मोदी के मामले में गुजरात मॉडल का हौव्वा और बहुत बड़ा नेता होने की छवि गढ़ी गई जबकि एक प्रेस कांफ्रेंस नहीं कर सकते। दूसरी ओर विपक्षी नेता को पप्पू साबित करने का प्रयास। इतना ही नहीं, अपनी शादी छिपाना और यह प्रचार करना कि जिसका परिवार नहीं होता है वह भ्रष्टाचार नहीं करता है। जबकि परिवार राहुल गांधी का नहीं है। यही नहीं मोदी जी के भाई, बच्चे, मां सब हैं और बेशक उनकी संख्या या आर्थिक स्थिति राहुल गांधी के गिनती के रिश्तेदारों से अच्छी नहीं होगी। और प्रचारित यह किया गया कि नरेन्द्र मोदी को रिश्वत कमाने की जरूरत नहीं है जैसे राहुल गांधी को हो। यह अलग बात है कि इस तरह का प्रचार बहुत कम लोगों पर असर करेगा लेकिन हुआ और उस पर बाकायदा खर्च किया गया। अभी भी यही प्रचारित किया जा रहा है कि विकल्प नहीं है। जबकि नरेन्द्र मोदी का प्रशासनिक कौशल (?) उनके हर फैसले में दिखता है। मीडिया आम लोगों को नहीं बताता यह अलग बात है लेकिन उसे छिपाने का खर्च और उस पर लग रही शक्ति क्या किसी उद्देश्य से है, प्रायोजित है। समझने के लिए पढ़िए— जिओ पॉलिटिक्स। अमेजन पर उपलब्ध है। 350 रुपए कीमत है और लोकमित्र प्रकाशन ने प्रकाशित किया है।
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