सम्पादकीय
राजनैतिक बिसात पर एक बार फिर दोषारोपण का खेल खेला जाने लगा है जो कि 2014 के बाद से अपने निम्न स्तर को बार बार छूने को प्रयासरत रहा है। जनमानस को लगने लगा है कि आदर्श नेताओं का जमाना अब चूक गया वो वक्त अब बीत गया जब सत्ता पक्ष का हो या विपक्ष का नेता अपने लिये सम्मान आदरभाव कमाने को अपनी सबसे बड़ी पूंजी समझता था। पैसा कमाना नेताओं कि निजी जरूरत से ज्यादा उनकी मजबूरी बन जाता है सत्ता के गलियारों के नजदीक रह कर मैनें ये समझा है। निम्नवर्गीय या मध्यम वर्गीय परिवार से निकल कर आप जनप्रतिनिधि बनते हैं फिर अगर आपको चुनाव लडना पडता है तो करोंडो का चुनाव लडने के लिये आपको अपने समस्त प्रियजनों एंव अन्य लोगों के चंदे पर निर्भर हो जाना पडता है, उस चंदे को देने के साथ उक्त व्यक्ति कि आपकी जीत के साथ महत्वकांक्षायें भी जुड जाती हैं जिन्हे पूरी करना आपकी जीत के साथ एक अहम कर्तव्य बन जाता है फिर जीत के साथ हजारों रूपये कि अपने कार्यकर्ताओं को रोज कि चाय पानी, आपके दर पर आये गरीब कि बीमारी, किसी गरीब कि लडकी कि शादी ऊपर से हमारे देश में सालाना जो सैकड़ों आयोजन होते हैं होली, माता का जागरण, रिबन कटवाने के लिये बुलावा, कहीं मुख्य अतिथि हर जगह पैसे कि दरकार होती है आपसे जो कि 101 रूपये का शगुन देकर नहीं टाली जा सकती है और फिर आपके निर्वाचित होने के बाद बेतहाशा शादीयों के कार्ड, जन्मदिन व अन्य तरह के आयोजन का हिस्सा बनने कि आपसे अपेक्षा रखी जाने लगती है जहां अगर आप एक फूलों का गुलदस्ता लेकर भी जाते हैं तो वो आठ सौ से हजार रूपये के बीच का आता है। इस सबके बीच आपका परिवार, घर खर्च, बच्चों का खर्च सब भी देखना पडता है और फिर दोबारा से चुनाव में खड़े होने लायक स्थिती के लिये करोंडो रूपये कि जमापूंजी भी चाहिये होती है जो कि एक मध्यम वर्गीय जनप्रतिनिधि के लिये जुटा पाना संभव नहीं हो सकता अगर वो ईमानदारी के ही रास्ते पर चले वो भी उस दौर में जहां चुनावों में वोटिंग कि पहली रात में ही शराब और पैसे के बल पर वोटों कि दलाली करके चुनाव पलट दिये जाते हैं। इस सबके लिये काफी हद तक हम भी जिम्मेदार हैं कयूंकी हम बिना स्वार्थ के तो दुनिया जहान के उपदेश दे लेते हैं आदर्श आचरण कि व्याख्या कर लेते हैं पर जब खुद के मतलब का कोई काम आन पडता है तो हमारी अंतर्मन कि तराजू आदर्श आचरण, उपदेश सबको किनारे रख कर स्वार्थ के हिसाब से अपने नेता का मुल्यांकन करना शुरू कर देती है। और जब एक नेता पैसा कमा कर अपना रहन सहन सामाजिक स्तर पर एक मुकाम पर ला खडा कर देता है तो उससे फिर नीचे उतरना उसके लिये संभव नहीं रह पाता है क्यूंकी वो फिर हारे या जीते पर उसके दरवाजे पर उससे मदद कि दरकार रखने वालों का रेला लगा ही रहता है। और यहीं से हमारे यहां राजनीति कि बिसात बिछनी शुरू होती है जिसमें शह मात का खेल खेला जाने लगता है और बेशुमार पैसे कि दरकार होती है जिसे हम जो हमने चुनावों में दारू पीकर, रकम लेकर लिया होता है उसे ब्याज सहित लौटाने लगते हैं और विडम्बना देखिये हमारे लोकतंत्र कि हमारी जेब से पैसा जा रहा होता है और जनप्रतिनिधियों द्वारा लुटाया जा रहा होता है पर हमें उसका अहसास इस तरह से होता है कि हम किसी व्यक्ति विशेष को सीधे तौर पर दोष नहीं दे पाते हैं। निर्वाचित नेताओं कि लक्जरी गाडी कि खरीद, उसके आस पास घुमते नौकर चाकर, उसके पूरे दिन में कई कई बार बदले जाने वाले मंहगे कपडे या उसकी लाखों रूपये खर्च करके सज्जित कि जाने वाली स्टाइलिंग सब हमें स्वाभाविक लगने लगती है और हमें पता भी नहीं चलता है कि ये सब हमारी ही जेब से कट गया है। और इसी परिपेक्ष में हम और हमारी सरकारें जनप्रतिनिधि सालों साल से चलते आ रहे हैं.. पांच साल में एक बार वो आपके दरवाजे पर होता है और फिर पांच साल तक आप उसका दरवाजा खटखटा रहे होते हैं बशर्ते उसके गेट पर दरबान आपको साहब नाश्ता कर रहे हैं, पूजा पर रहे हैं, नहा रहे हैं इत्यादी इत्यादी कह कर भगा न रहा हो। जब हम खुद ही इस तरह कि जमीन तैयार करने के जिम्मेदार हैं तो हमें शिकायत करने का भी बहुत ज्यादा हक नहीं रह जाता है। पर प्रश्न ये है कि आखिर कब तक और क्या इसकी परिणीती है। आज हम सबकी सम्पूर्ण भागीदारी और देश निर्माण में सहयोग देने के बावजूद भी देश कि अर्थव्यवस्था कयूं चरमरा गयी है क्यूं हर घंटे तीन नौजवान आत्महत्या कर रहे हैं और क्यूं भूख से बेबस लोग अपनी डिबडिबाती आंखो से एक जून के खाने को अपना उद्देश्य बना कर रह जाता है। बेरोजगारी चरम पर है, अराजकताऔर मंहगाई आसमान छू रही है तो हमें गहराई से सोचना चाहिये कि कमी हमारी रह गयी या वो लोग अपना काम सही तरीके से अंजाम नहीं दे पा रहे हैं जिनके कंधो पर हमने अपने सपनों को साकार करने कि जिम्मेदारी डाली थी। अब नहीं उठे तो कभी नहीं उठ पायेंगे क्यूंकी इन हालातों में दो वक्त कि रोटी मिलने को ही हम अपनी जिंदगी कि उपलब्धि मानने लगेंगे। रोजमर्रा कि जिंदगी में अपने पारिवारिक कर्तव्यों के निर्वहन करने से इतर भी एक कर्तव्य होता है हमारा और वो है सामाजिक कर्तव्य, उस देश के लिये समर्पण जिस देश को आजाद करवाने के लिये हमारे लाखों करोंडो लोगों ने अमानुषिक यातनाओं को सह कर जान देकर हमें ये आजादी प्रदान की है। हम कोल्हू में जोते गये बैल नहीं हैं जिसे जैसे चाह वैसे हांक दिया। हमें व्हटस ऐप फेसबुक और अन्य सोशल मिडिया यूनिवर्सिटी से बाहर निकल कर सच को आत्मसात करना सीखना पडेगा और सच के साथ डट कर खडे होने कि प्रवृत्ति डालनी पडेगी क्यूंकी सवाल सिर्फ आपकी हमारी जिंदगी का नहीं है बल्कि हमारी आने वाली उस नस्ल का है जिसके चेहरे कि मुस्कुराहट देखने के लिये हम अपना सब कुछ न्यौछावर करने का जज्बा रखते हैं, सवाल हमारे उस भविष्य का है जिसमें हम अपनी पूरी जिंदगी का सार ढूंढते हैं और अगर ये सार ही हमारे द्वारा तैयार की गयी रेतीली जमीन पर हतोत्साहित होकर दम तोड़ गया तो हमारी जिंदगी का कोई मतलब ही नहीं रह जायेगा। बात सिर्फ अपना घर संवारने कि नहीं है, घर के बाहर के रास्ते को साफ करने कि भी है ताकी जिन नन्हें पैरों को हम घर के अंदर बहुत संभाल कर सहेज कर रखते हैं उन पैरों में बाहर निकलते ही कांटे न चुभ जायें। आज देश के लिये हमारी सोच हमारी कार्यशैली सब बदलने कि जरूरत है।
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