बहका हुआ लोकतंत्र- श्याम सिंह रावत


लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमजोरी है इसमें यह न देखा-समझा जाना कि क्या कहा जा रहा है, बल्कि यह महत्वपूर्ण हो जाना कि कौन कह रहा है और उसे कितने लोगों का समर्थन प्राप्त है। यह बुराई किसी बड़े जहाज की पैंदी के उस छोटे-से छेद की तरह है जो जहाज को डुबाने की क्षमता रखता है।


नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल में अर्थव्यवस्था, बैंकिंग, उद्योग व्यापार, रोजगार, महंगाई, शिक्षा, चिकित्सा, संवैधानिक संस्थाओं आदि की तबाही, जन-सरोकारों की घोर उपेक्षा, सार्वजनिक क्षेत्र व संसाधनों का निजीकरण, भयानक भ्रष्टाचार सम्बंधी तमाम विफलताओं के बावजूद 2019 के चुनाव में मोदी के हाथों फिर से देश की सत्ता सौंपने से साबित हो गया कि भारतीय लोकतंत्र अभी परिपक्व नहीं हो पाया है या फिर एक देश के रूप में हम अपने मताधिकार का सदुपयोग करना नहीं जानते।


हम काम दिमाग से लेने की अपेक्षा दिल से लेते हुए भावनाओं में बह जाते हैं। हमने वोट देते समय अपनी राष्ट्रीय आकांक्षाओं, अपेक्षाओं और सम्भावनाओं को परे रखकर सिर्फ और सिर्फ हिंदू-मुसलमान जैसी एकदम वाहियात बात पर मुहर लगा दी।


आज जब देश एक भयानक त्रासदी के दौर से गुज़र रहा है और चारों तरफ फैली बदइंतजामी से हम सब असहाय अवस्था में जीने को बाध्य हैं, तब भी हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि हमारी ऐसी दयनीय दशा का जिम्मेदार कौन है?


यह माना कि समस्या वैश्विक है और हम इससे अकेले प्रभावित नहीं हैं लेकिन यहां तो जब 30 जनवरी को कोविड-19 का पहला मामला सामने आया था उसके एक सप्ताह बाद से ही सरकार को बार-बार चेतावनियां दी जाने लगी थीं कि इसके फैलने से देश में भयानक तबाही मचेगी, परंतु सरकार ने उल्टा रुख अपनाते हुए ऐसी चेतावनियों का मज़ाक उड़ाया, उन्हें डर फैलाने वाली बताया। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने बार-बार कहा कि मास्क लगाकर लोगों डराया जा रहा है। मास्क पहनने और कोरोना से डरने की जरूरत नहीं है।


कोरोना जैसी जानलेवा महामारी की घोर उपेक्षा ही नहीं की गई, बल्कि इसे एक तरह से आमंत्रित किया गया। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के अहमदाबाद में 24 फरवरी के जमावड़े में लाखों लोगों की भीड़ इकट्ठा की गई। जिसमें अमेरिका सहित अन्य देशों से भी हजारों लोग भारत आये और कोरोना संक्रमण की किसी की भी जांच नहीं की गई। क्या ट्रंप का वह दौरा टाला नहीं जा सकता था? वैसे भी अमेरिकी राष्ट्रपति के उस दौरे से भारत को क्या हासिल हुआ?


उसके बाद भी सत्ता के नशे में चूर मोदी एंड कंपनी को होश नहीं आया और वह दिल्ली चुनाव में व्यस्त हो गई। फिर उसकी प्राथमिकता मध्य प्रदेश में 'सत्ता हड़पो अभियान' को सफल बनाना हो गई। जिसमें कामयाब होते ही 22 मार्च को देश में एक दिनी जनता कर्फ्यू लगाया गया। तब तक बहुत देर हो चुकी थी और सारा देश कोरोना की चपेट में आ गया था। इस पर भी मोदी सरकार आँख-कान बंद किये पड़ी रही। जहां दुनियाभर में तमाम देश कोरोना संकट से उबरने के लिए आवश्यक संसाधन जुटा रहे थे, वहीं भारत से इन देशों को चिकित्सा सामान निर्यात किया जा रहा था। नतीजतन अपने ही घर में इन जरूरी चीजों का अकाल पड़ गया। चिकित्साकर्मी लगातार इस आवश्यक सामग्री की मांग करते रहे, खुद संक्रमित होकर बीमार पड़ते रहे लेकिन मोदी एंड कंपनी कुंभकर्णी नींद सोती रही। वह अपने पालतू गोदी मीडिया के भरोसे जनता को ताली-थाली बजाने और दीया-मोमबत्ती जलाने जैसे क्रूर मजाकों के जरिए गुमराह करती रही।


लेकिन क्या इतना सब देखते-भोगते हुए भी लोगों को अपनी भूल का ऐहसास हुआ? शायद नहीं! क्योंकि एक देश के रूप में अपनी गलतियों से सीखना हम कब का भूल चुके हैं और क्योंकि हम दिमाग से नहीं बल्कि दिल से काम लेने के अभ्यस्त हो गये हैं।


आखीर हम कब चेतेंगे कि हमारी जरूरत स्कूल-कॉलेज हैं, मंदिर-मस्जिद नहीं, जिन पर आज ताले लटकाने पड़े हैं!


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