आजादी की लड़ाई का नेतृत्व करने वालों ने इसे बहुत ठीक से समझा था- Shyam Singh Rawat

आज देश में जन-सरोकारों को लेकर संघर्षरत तथा लोकतंत्र के प्रहरी न जाने यह क्यों भूल जाते हैं कि भारत अब भी गांवों का देश है। आजादी की लड़ाई का नेतृत्व करने वालों ने इसे बहुत ठीक से समझा था। ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ ग्रामीण भारत में प्रतिरोध की सूनामी पैदा हो गई थी। इसके विपरीत आज हम गांवों को सिरे से भुलाकर शहरों और खास तौर पर राजधानियों से देश की कॉरपोरेट पोषित पूंजीवादी तथा मनुवादी व्यवस्था को बदल देने की खुशफहमी में हैं।


गांवों की आर्थिक स्थिति बाजारवाद और शहरीकरण की वजह से उपभोक्तावाद की चमक-दमक में नज़र नहीं आती, जबकि किसान भारी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं। वे अपनी जमीन से बेदखल होकर अपने ही देश में शरणार्थी बन रहे हैं। दलित, आदिवासी और पिछड़े भारी तादाद में रोज़गार और आजीविका से बेदखल हो चुके हैं।


दूसरी तरफ वैश्विक स्तर पर पूंजीवाद ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण को रोजगार खत्म करने का साधन बना डाला है। इससे हर तरफ प्राइवेट सैक्टर की चकाचौंध है। यहां तक कि सरकारें भी प्राइवेट सैक्टर की कठपुतली बन गई हैं। सरकार और प्राइवेट सैक्टर के बीच अन्योन्याश्रित सम्बंध इतना मजबूत बन गया है कि ये एक-दूसरे के पूरक बन चुके हैं। प्राइवेट सैक्टर न रोज़गार देता है और न ही सामाजिक सुरक्षा। यह सैक्टर स्थाई नौकरी तक नहीं देता। छंटनी करता है। ऑटोमेशन और आर्टिफिशियल टैलेंट, रोबोटिक्स और क्वांटम/नैनो टेक्नोलॉजी के जरिए रोज़गार खत्म कर रहा है।


हमें मालूम है कि पहले के समय में सामान्य शिष्टाचार, परस्पर सहयोग, मैत्रीपूर्ण सम्बंध और ईमानदारी गांवों की परंपरागत पूंजी थी। आज तकनीक, राजनीति और बाजारवाद की महिमा से हर गांव घृणा, द्वेष, हिंसा में सराबोर हिंदूवादी अंधराष्ट्रवाद, धर्मांधता, साम्प्रदायिकता, नशा और चारित्रिक पतन का अजेय किला बन गया है। यह किलेबंदी 1947 से लेकर पिछली सदी के अंत तक कांग्रेस के सामंती नेता कर रहे थे, जिसे अब संघ-परिवार ने हथिया कर इतना मजबूत कर दिया है कि शहरों के शाहीनबाग की कोई प्रतिध्वनि गांवों में सुनाई नहीं देती। वहां लोग निस्पृह भाव से मूकदर्शक बने हुए हैं।


जबकि गांवों में अब पहले जैसा न पारस्परिक सहयोग है, न सद्भाव। रोज़गार की सम्भावना तो समाप्तप्राय है। हर गांव में भव्य मंदिर जरूर बन गया है और बनते जा रहे हैं। हर खेत में साम्प्रदायिकता की चरस पैदा की जा रही है। गांव-गांव में हर चीज का साम्प्रदायीकरण किया जा चुका है। पूरा ग्रामीण-तंत्र इसके शिकंजे में है। संविधान, कानून और व्यवस्था सिर्फ राजनीति के लिए है। जबकि देश और समाज को मनुस्मृति के तथाकथित कुलीन एकाधिकारवादी वर्चस्व से जबरन चलाने की कोशिश की जा रही है। इस एकाधिकारवाद को शासन प्रणाली ने अर्थव्यवस्था के जरिए पहले से अधिक मजबूत बनाया है। इसमें राष्ट्रीय स्तर पर न्यायपालिका से लेकर मीडिया, साहित्य, संस्कृति, सिनेमा, शिक्षा, कला आदि किसी भी क्षेत्र से हस्तक्षेप की कोई कोशिश नहीं की गई है।


आजादी से पहले देश अनपढ़ जरूर था लेकिन धर्मांध हरगिज़ नहीं था। आज देश जितना पढ़ा-लिखा है, जितनी तकनीक से लैस है, उतना ही ज्ञान-विज्ञान से दूर है। उसकी सत्य की खोज और तार्किकता को जैसे लकवा मार गया है। विकास के प्रेरक तत्व—जरूरत, अवधारणा और इच्छाशक्ति जैसे हवा में विलीन हो गये हैं। मुट्ठीभर सत्ताखोर जनता को सांप्रदायिक अफीम चटाकर पूंजीवाद, सामंतवाद और साम्राज्यवाद को पुनर्स्थापित करने में पूरी ताकत से जुटे हुए हैं। हर तरह के सामाजिक विभाजनों की खाइयों को पाटने के बजाय इन्हें और भी अधिक गहरा व चौड़ा किया जा रहा है। देश को कॉरपोरेट एकाधिकारवादी रास्ते से विदेशी पूंजी का उपनिवेश बनाया जा रहा है।


संघ परिवार ने दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों, किसानों, मज़दूरों, स्त्रियों, छात्रों और युवाओं को नरसंहारी मुक्तबाजारी हिंदुत्व की पैदल सेना बना डाला है।


हमने तेज़ आर्थिक, औद्योगिक, शहरी, तकनीकी विकास की चकाचौंध में गांवों के इस कायाकल्प की, मनुवादी सामाजिक विभाजन के नए सिरे से मजबूत होते जाने और पूरी मेहनतकश जनता के उद्दंड बजरंगी होते जाने की कभी फिक्र ही नहीं की।


सीएए, एनपीआर और एनआरसी से सर्वाधिक हैरान-परेशान और पुश्तैनी घर-गांव से बेदखल होंगे—विभाजन पीड़ित शरणार्थी, आदिवासी और वन क्षेत्रों में रहने वाले दूसरे लोग, किसान और मजदूर। आज सीएए, एनपीआर और एनआरसी के प्रतिरोध में सिर्फ मुसलमानों के साथ होने वाले अन्याय की चर्चा हो रही है तो प्रतिरोध में भी ज्यादातर उनके ही चेहरे दिखेंगे और दिख भी रहे हैं। हम सत्ता-वर्ग के धर्मांध ध्रुवीकरण, उसकी नफरत और उसकी हिंसा को सामाजिक समझ न होने के कारण अपनी जड़-जमीन और गांवों से कटे होने की वजह से मजबूत करते जा रहे हैं।


हम सीएए, एनपीआर और एनआरसी का सशक्त प्रतिरोध करने की बजाय अमानवीय मनुस्मृति के पक्षधरों द्वारा फैलाये अंधकारमय युग में दाखिल हो चुके हैं। ऐसे में ज्ञान व विवेक से परिपूर्ण प्रकाश की कोई किरण हमें सुनहरे भविष्य की रोशनी नहीं दिखाती।


तो क्या हम यह मान लें कि उल्लुओं की तरह अंधकार में पड़े रहना हमारी नियति है या फिर हम एक दुर्द्धर्ष योद्धा की तरह अपने तथा अपने बच्चों के स्वर्णिम भविष्य के लिए कमर कसकर सन्नद्ध हो जायें।


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